vedic ganit वैदिक गणित
भारतीय
गणितज्ञ एवं उनका कृतित्व-introduction and creativity
of indian mathematician in reference with aryabhata, varaha mihira, brahma
gupta, bhaskaracharya, shrinivas ramanujan
भारतीय गणितज्ञ एवं उनका कृतित्व !! aryabhata, varaha mihira, brahma gupta, |
विश्व
के लोगों की यह सर्वाधिक अवधारणा है कि अधिकांश गणितीय ज्ञान का विकास एवं जन्म
भारत में ही हुआ हैं। भारत द्वारा विश्व में गणित के क्षेत्र में सर्वाधिक योगदान
है ।
भारतीय
इतिहास में गणित का प्रयोग-
200
ई पू 400 बक्शाली, पांडुलिपि,
गणितीय क्रियाओं के नियम, शून्य
का उपयोग, सरल बीजगणित अज्ञात राशि निरूपण , ऋण
चिन्ह की संकल्पना।
- 400
से 1200 ई – भारतीय गणित का स्वर्ण काल,
महत्वूर्ण ग्रन्थों की रचना, आर्यभट्टीय
, पंच सिद्धान्तिका,भाष्य,महाभाष्य, सिद्घधान्त, शिरोमणि
।
भारत
में गणित का स्वर्णकाल आर्यभटट से प्रारंभ होता है तथा यह क्रम निरंतर आगे बढ़ा
है।
vedic ganit के
अंतर्गत हम प्रमुख गणितज्ञों के जीवन परिचय एवं कृतित्व या योगदान के बारे में
विस्तार से बात करेंगे।
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आर्यभट aryabhata
में पाटलीपुत्र के निकट कुसुमपुर में हुआ था। यह समय भारत का स्वर्ण युग था। इस
मसय सम्पूर्ण भारत मगध शासक के निर्देशन में चहुमुखी प्रगति कर रहा था। इसी काल
में aryabhata ने 23 वर्ष की आयु में सन् 499 ई में आर्यभट्टीय नामक ग्रंथ की रचना
की।
इस ग्रंथ के चार प्रमुख
भाग है :–
- 1 गीतिका पाद
- 2 गणित
पाद - 3 कालिक्रिया पाद
- 4 गोलपाद
आर्यभट्टीय ग्रंथ में
121 श्लोक है। गणितवाद में जो विषय दिये हैं वे इस प्रकार है। संख्या स्थान
निरूपण,
वर्ग और घन परिकर्म, वर्गमूल, घनमूल,त्रिभुज वृत्त और सम्बलम्ब चतुर्भुज के
क्षेत्रफल् तथा गोल और पिरामिड का आयतन तथा π का मान, R-sin सारणी, श्रेढ़ी गणितम,
त्रैराशिक,
व्यस्त त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, विपरीतकर्म,युगपत
समीकरण, कुट्टक आदि।
आर्यभट्टaryabhata का योगदान अतुलनीय है। आर्यभट्ट ने π का मान (3.1416) दशमलव के चार
स्थानों तक ज्ञात किया है।
आर्यभटaryabhata का कार्य
परवर्ती गणितज्ञों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है। आर्यभट की प्रसिद्धि भारत में
ही नहीं अपितु विदेशों में भी है। महान खगोलखास्त्री एवं गणितज्ञ होने के कारण अरबवासी
इन्हें अरजभर नाम से पुकारते थे। भारत ने पहले उपग्रह का नाम आर्यभट रख इनके
प्रति सम्मान प्रकट किया है।
वराहमिहिर varaha mihira
वराहमिहिर का जन्म काल
पांचवी शताब्दी के अन्तिम चरण में माना जाता है। विक्रम संवत 556 तदानुसार 499 ई
के लगभग इनका जन्मकाल है। उज्जैन से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित कायथा (कापित्थका)
नाम स्थान इनका जन्म स्थान माना जाता है। यह मध्यप्रदेश में स्थित है।
वराहमिहिर के पिता का
नाम आदित्य दास तथा तथा माता का नाम सत्यवती था। इनके माता – पिता सूर्य के
उपासक थे।
कृतित्व / योगदान –
वराहमिहिर varaha mihira ने कापित्थका
में एक गुरूकुल की स्थापना की थी।
- 1 पंच सिद्धान्तिका
- 2
वृहज्जातक - 3 वृहद्यात्रा
- 4 योग यात्रा
- 5 विवाह पटल
- 6 वृहत संहिता
इन ग्रंथों में पंच
सिद्धांतिका एवं वृहत संहिता विशेष प्रसिद्ध हैं।
वृहद संहिता एक ऐसा
ज्ञान कोष है जो भारतीय संस्कृति के इतिहास को विस्तार से प्रकट करता है। वराहमिहिर
ज्योतिष के साथ-साथ खगोल विज्ञान के भी ज्ञाता थे। पंच सिद्धांत के प्रथम खंड में
खगोल विज्ञान पर व्यापक विचार मिलता है। पंच सिद्धांतिका के चतुर्थ अध्याय में
त्रिकोणमिति से संबंधित सुत्र मिलते हैं। उन्होंने अपने वृहत संहिता ग्रंथ में
संचय ज्ञात करने के लिए एक पद्धति विकसित की है जिसे लोस्ठ प्रस्तार कहा जाता है।
सुगंधित द्रव्य तैयार
करने की पद्धतियों को बताते समय वराहमिहिर ने (4х4
के पेंडियागोनल जादुई वर्ग) pandiagonal magic squre का उपयोग किया है।
वराहमिहीर
ने इसके अलावा नक्षत्र विद्या, वनस्पति विज्ञान, भूगोल, प्राणीशास्त्र, कृषि
विज्ञान इनका भी अपने ग्रंथों में विचार किया है।
वराहमिहिर
ने इसके अलावा नक्षत्र विद्या, वनस्पति विज्ञान, भूगोल, प्राणीशास्त्र, कृषि
विज्ञान इनका भी अपने ग्रंथों में विचार किया है।इन ग्रंथों से हमें प्राचीन
भारतियों की वैज्ञानिक दृष्टि एवं अनुसंधानों का ज्ञान प्राप्त होता है। वराहमिहिर
की बहुमुखी प्रतिभा के कारण उनका विशिष्ट स्थान है।
इनका
निधन लगभग 644 विक्रम संवत अर्थात 587 ईं के आसपास हुआ।
ब्रह्मगुप्त brahma gupta
ब्रह्मगुप्त
का जन्म 598 ई अर्थात 520 शक संवत में हुआ था। इनका जन्म स्थान भिनमाल माउन्ट
आबू राजस्थान में हैं। यह गुजरात सीमा से लगा हुआ है।
ब्रह्मगुप्त brahma gupta उज्जैन गुरूकुल के प्रमुख खगोलशास्त्री का प्रमाणिक एवं मानक ग्रंथ है। इस ग्रंथ
में 24 अध्याय हैं। 12 वें अध्याय को गणिताध्याय नाम दिया है अर्थात इसमें
अंकगणित तथा छाया गणित आदि पर सामग्री दी गई है। 18 वें अध्याय को कुट्टाध्याया
नाम दिया है। इसमें बीजगणित अनिर्धार्य रैखिक एवं वर्ग समीकरणों के हल दिये हैं।
इसके अध्याय 2 में त्रिकोणमिति पर कार्य किया गया है।
इस
ग्रंथ के अलावा इसका खण्डखाद्यकम नामक करण ग्रंथ उपलब्ध है। इसमें विशेषकर
अंतर्वेशन तथा समतल त्रिकोणमिति एवं गोलीय त्रिकोणमिति दोनों में sin(ज्या) और cosine कोटिजया के नियम उपलब्ध है।
उपयुक्त दोनों ग्रंथ भांडारकर प्राच्य विद्या संशोधन मंदिर पुणे महाराष्ट्र में
देखे जा सकते हैं।
ब्रह्मगुप्त
के इन ग्रंथों के अरबी और फारसी भाषा में अनुवाद के माध्यम से भारत का यह गणित
एवं खगोल विज्ञान का ज्ञान अरब तथा बाद में पश्चिम के देशों को हुआ।
ब्रह्मगुप्त
का ज्यामिति के क्षेत्र में विशेष योगदान है। इन्होंने चक्रीय चर्तुर्भुज के
क्षेत्रफल ज्ञात करने का सुत्र दिया है जो इस प्रकार है :श्लोक::
स्थूलफलं
त्रिचतुर्भुजबाहु प्रतिबाहु योग दलघात: ।
भुजयोगार्ध
चतुष्टय भुजोनघातात् पदं सूक्ष्मम् ।।
त्रिचतुर्भुजबाहु प्रतिबाहु योग दलघात: ।
चतुष्टय भुजोनघातात् पदं सूक्ष्मम् ।।
चक्रीय
चतुर्भुज का क्षेत्रफल =√(s-a) (s-b) (s-c) (s-d) जहां a,b,c,d एवं d चक्रीय
चतुर्भुज की भुजाएं है तथा 2s=a+b+c+d है।
चक्रीय चतुर्भुज का
क्षेत्रफल निकालने का यह सुत्र देने वाले वह विश्व के प्रथम गणितज्ञ हैं। इस
सुत्र में d=0 रखने पर इससे
त्रिभुज का क्षेत्रफल भी ज्ञात किया जा सकता है।
ब्रह्मगुप्त brahma gupta के गणित के क्षेत्र में मौलिक योगदान को समझकर विख्यात गणितश्र भास्काराचार्य ने
उन्हें ”गणक चक्र चूणामणि” की
उपाधि से सम्मानित किया है।
भास्कराचार्य bhaskaracharya
भास्कराचार्य bhaskaracharya का जन्म शक संवत् 1036 को हुआ था। अत: विक्रम संवत 1171 तथा सन 1114 ई इनका जन्म
काल है । विज्जडवीड नामक गांव में इनका जन्म हुआ था। विज्जडवीड स्थान के विषय
में कुछ लोगों का मत है कि यह बीजापुर कर्नाटक में है तथा कुछ लोगों का विश्वास
है कि यह स्थान जलगांव महाराष्ट्र प्रांत में स्थित है।
भास्कराचार्य
के पिता का नाम महेश्वर था वे अपने पिता को ही अपना गुरू मानते थे। भास्कराचार्य
उज्जैन गुरूकुल परम्परा के खगोलशास्त्री थे। गणित तथा खगोल शासत्र पर पर इनके
तीन ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं।
- 1
लीलावती – इस ग्रंथ में अंकगणित, ज्यामिति तथा क्षेत्रमिति का विचार है। - 2
बीजगणितम- इसमें बीजगणित एवं अनिर्धार्य समीकरणों का हल दिया गया है। - 3
सीद्धांत शिरोमणि- यह खगोलशास्त्र का मानक ग्रंथ माना जात है।
साधारणत:
सिद्धांत शिरोमणि के प्रमुख चार भाग है-
- 1 लीलावती
- 2 बीजगणितम
- 3 ग्रहगणित
- 4 गोलाध्याय
इन
सभी ग्रंथों के हिन्दी, मराठी, गुजराती, कन्नड आदि भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। साथ ही
फारसी तथा अंग्रेजी में भी इनके अनुवाद हुए हैं।
इन
ग्रंथों की लोकप्रियता और उपयोगिता इस बात से प्रमाणित होती है कि इन ग्रंथों पर
4000 से भी अधिक टीकाएं उपलब्ध हैं। इनके ग्रंथ लीलावती और बीजगणितम वर्षेां तक
पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ़ाये जाते रहे हैं। अन्य महत्वपूर्ण बिन्दू भी यहां
उल्लेखनीय है जैसे कालगणना के संबंध में उन्होने सूक्ष्म विचार किया है। पृथ्वी
के गुरूत्वाकर्षण शक्ति की संकल्पना इनके ग्रंथों में विद्यमान हैं। उन्होंने
उज्जैन को शून्य रेखावृत्त माना है। ग्रहों के आकार पृथ्वी से उनकी दूरी एवं
ग्रहों की गति ज्ञात करने की विधियों भी उन्होंने दी है। चन्द्रमा स्वयं
प्रकाशित नहीं है। चन्द्रमा पर से देखने पर पृथ्वी कहां दिखेगी इस प्रकार से
प्रश्न तथा उनका हल भी भास्कराचार्य ने दिया है।
अत:
बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न ऐसे महान गणितज्ञ के संबंध में अध्ययन करने पर ज्ञात
होता है। कि गणित एवं खगोलशास्त्र पर उनका योगदान अतुलनीय है। उनका देहांत 1179
ई0 में हुआ। भारत की वैज्ञानिक परम्परा को आगे बढ़ाने वाले गणितज्ञ भास्काराचार्य bhaskaracharya के नाम से भारत ने अपने उपग्रह का नाम भास्कर रखा।
श्रीनिवास
रामानुजन shrinivas ramanujan
श्रीनिवास
रामानुजन बायोग्राफी
महान
गणितश्र श्रनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तमिलनाडू के इरोड नगर में
हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीनिवास आयंगर था। वे निर्धन होते हुए भी स्वाभिमानी
थे। उनकी माता का नाम कोमलताम्मल था।
रामानुजन की मां धार्मिक तथा निश्चयात्मक बुद्धि की थी।
रामानुजन shrinivas ramanujan प्रारम्भ से ही जिज्ञासुवृत्ति एवं कुशाग्रबुद्धि के थे। सन् 1897 में उन्होने
टाउन हाई स्कूल में प्रवेश लिया । रामानुजन की गणित में विशेष रूचि थी। हाई स्कूल
तक अपनी कक्षा में वे हमेशा प्रथम आये। हाई स्कूल की परीक्षा सन् 1904 में
उत्तीर्ण की और प्रथम स्थान प्राप्त करने पर उन्हें छात्रवृत्ति मिली।
हाई
स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात रामानुजन ने कुंभकोणम कालेज में प्रवेश
लिया। गणित में उनकी विशेष रूचि थी। दिन
रात गणित के अलावा और कुछ न पढते लिखते अंत वे अन्य विषयों मे अनुत्तीर्ण हो
गये। परिणामस्वरूप इनकी छात्रवृत्ति बंद हो गई आगे की पढ़ाई में बाधा उत्पन्न
हो गई। परन्तु गणित में शोघ कार्य जारी रहा।
1913
में रामानुजन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध गणितज्ञ प्रोफेसर जीएच
हार्डी को एक पत्र लिखा और पत्र के साथ उन्होंने लगभग 120 प्रमेय भी भेजे थे।
रामानुजन के कार्य से प्रभावित होकर उन्होंने उनको सन 1914 में इंगलैण्ड बुला
भेजा। रामानुजन को उनके शोध पत्र के आधार पर बिना परीक्षा दिये मार्च 1916 में बीए
की उपाधि प्रदान कर दी गई।। इंग्लैण्ड के प्रवास में हार्डी के साथ रामानुजन के
21 शोध पत्र प्रकाशित हुए। 6 दिसम्बर 1917 को रामानुजन लन्दन में मेथमेटीकल
सोसाइटी के फैलो निर्वाचित हुए। 27 मार्च 1919 को वे इंग्लेण्ड से भारत पहंचे ।
भारत में रामानुजन का भव्य स्वागत किया गया।
रामानुजन
भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सच्चे पुजारी थे। इंग्लैण्ड जाते समय उन्होंने
अपने पिता को वचन दिया था कि मैं इंग्लेण्ड में भी हिन्दुस्तानी रहूंगा और कोई
ऐसी बात नहीं करूंगा जिससे भारतीयता को चोट पहूंचे इस वचन का उन्होंने पूर्णत:
पालन किया।
अपने
जीवन के अंतिम क्षणों तक अभावों की परवाह न करते हुए गणित के अध्ययन अनुसंधान एवं
लेखन में वे प्रवृत्त रहे। उनकी अध्यावसायशीलता अनुकरणीय है। एसे विलक्षण
गणितज्ञ का 26 अप्रैल 1920 को देहावसान हो गया।
shrinivas ramanujan योगदान
–
रामानुजन के रामानुजन डायरी में अंतर्गत लगभग कई प्रकार के गणितीय सुत्र का
निर्माण कियागया जिसे आज भी कई गणित के स्कालर हल नहीं कर पाये हैं। और रिसर्च कर
रहें हैं। उनहोंने 21 शोध पत्र रिसर्च पेपर में अनेक प्रमेय का वर्णन कर सिद्ध भी
किया हैं।
💬shrinivas ramanujan रामानुजन
का इंडिया से लंदन तक का सफर पढ़े पूरी कहानी-