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भारत की भौगोलिक संरचना Bharat ki bhogolik sanrachna




भारतीय भूगर्भिक सर्वेक्षण के विद्वान
सर टी. हालैण्ड ने प्रमुख विषम विन्यासो के आधार पर भारत के भूगर्भिक इतिहास को 4
वृहद भूगर्भिक कल्पो
मे वर्गीकृत किया है। यथा-

1. आद्य महाकल्प The Archaean
Era

2. पुराण महाकल्प The Purana
Era

3. द्रविड़ियन महाकल्प The Dravidian
Era

4. आर्य महाकल्प The Aryan Era

विभिन्न युगो मे संसार के भान्ति भारत
में भी मोड़दार पर्वतो की उत्पति चार अवस्थाओ में हुई है।

  1.  प्रथम चरण में अरावली
    पर्वत
    की उत्पति हुई जो सर्वाधिक पुराना है तथा पूर्व कैम्ब्रियन युगीन धारवाड़ियन
    चट्टानो
    से निर्मित है।
  2. दूसरे चरण में कैलीडोनियन युगीन पर्वतो
    की उत्पति हुई। भारत में इससे कुड़प्पा भूसन्नति से पूर्वी घाट पर्वत की उत्पति हुई
    , जो
    महानदी
    , गोदावरी, कावेरी, कृष्णा आदि से
    काट दिया गया है।
  3. तीसरे चरण में हर्सीनियन युगीन पर्वतो
    का निर्माण हुआ
    , जो भारत में विंध्यांचल व सतपुड़ा के रूप में विंध्यन भू सन्नति से
    उत्पन्न हुए। इसमें भ्रंश घाटीया पाई जाती है।
  4. चैाथे चरण में अल्पाइन क्रम के पर्वतो
    का निर्माण हुआ जिसमें भारत में वृहद
    , मध्य व शिवालिक
    हिमालय
    की 
    श्रेणीया आती है।

याद रहे वृहद हिमालय की उत्पति के समय
ही भारतीय प्लेट के तिब्बत प्लेट से टकराने के परिणामस्वरूप भारत के पश्चिमी भाग
के भ्रंशित होकर समुन्द्र मे अधोगमित होने से पश्चिमी घाट भ्रंशित पर्वत का
निर्माण हुआ।

भारत का भूगर्भिक इतिहास बताता है कि
यहां पर प्राचीनतम से लेकर नवीनतम चट्टानो तक पाई जाती है। भूगर्भिक संरचना की
विशेषताओ के आधार पर भारत के तीन स्पष्ट वृहद भाग है-

1. दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार daksin ka praydwipiya pathar

2. उतर की विशाल पर्वतमाला uttar ki vishal parvatmala

3. उतर भारत का विशाल मैदानी भाग  uttar bharat la vishal maidani bhag


दक्षिण
का प्रायद्वीपीय पठार  dakshin ka praydwipiy pathar

इसका निर्माण प्री कैम्ब्रियन काल में भू पृष्ठ के शीतलन
और दृढीकरण से हुआ।
यह भाग कभी भी समुन्द्र में नही डुबा और इस पर विवर्तनिक बलो
का भी विशेष प्रभाव नही पड़ा। इस भाग में नदियां प्रौढ (वृद्ध) अवस्था में पहुंचकर
आधार तल को प्राप्त कर चुकी है। यह गौण्डवानालैण्ड का ही एक भाग है।

प्रायद्वीपीय भारत की संरचना में
चट्टानो के निम्नलिखित क्रम मिलते है-

1. आर्कियन क्रम की चट्टाने – arkiyan karm ki chattane

  • जब पृथ्वी सबसे पहले ठण्डी हुई थी
    तब इन चट्टानो का निर्माण हुआ था। 
  • ये रवेदार होती है तथा इनमें जीवाश्मो का अभाव
    होता है। 
  • इनका विस्तार मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, छतीसगढ
    व झारखण्ड के अलावा राजस्थान के दक्षिण पूर्व भाग मे है। 
  • इससे प्रायद्वीपीय भारत
    का दो तिहाई भाग निर्मित है। इससे ग्रेनाईट व नीस प्रकार की चट्टाने मिलती है।

2. धारवाड़ क्रम की चट्टाने dharwad karm ki chattane

  •  ये आर्कियन के अपरदन से बनी
    परतदार चट्टाने है।
  •  इनके अत्यधिक रूपांतरण के कारण इनमें जीवाश्म नही पाए जाते है।
  •  इनके निर्माण के समय तक जीवो का उद्भव नही हुआ था। इन चट्टानो का जन्म कर्नाटक के
    धारवाड़
    , बेलारी व शिमोगा जिलो में हुआ है।
  •  ये भारत में सबसे अधिक आर्थिक
    महत्व 
    की चट्टाने है। इनसे सोना, मैगनीज, लौहा, तांबा
    टंगस्टन
    ,
    जस्ता आदि प्राप्त होता है। ये चट्टाने झारखण्ड, छतीसगढ, ओड़िशा, कर्नाटक, गोवा
    व मध्यप्रदेश
    में मिलती है।

3. कुड़प्प्पा क्रम की चट्टाने kudappa karm ki chattane

  • इनका निर्माण धारवाड़ क्रम की
    चट्टानो के अपरदन से हुआ है। ये अपेक्षाकृत कम रूपान्तरित होती है परन्तु इनमे भी जीवाश्म
    का अभाव
    पाया जाता है। 
  • इन चट्टानो का नामकरण आन्ध्रप्रदेश के कुड़प्पा जिले के नाम पर
    हुआ है।
  • ये चट्टाने आन्ध्र प्रदेश, छतीसगढ, राजस्थान तथा
    हिमालय
    के कुछ क्षेत्रो
    , कृष्णा घाटी, नल्लामलाई
    श्रेणी तथा पापाधनी
    श्रेणी में पाई जाती है। 
  • इनमें बलुआ पत्थर, क्वार्टजाइट, स्लेट, संगमरमर, एस्बेस्टस
    व चूने के पत्थर की चट्टानो
    से निर्माण सामग्री मिलती है। कुड़प्पा क्रम की चट्टानो
    से ही पूर्वी घाट का निर्माण हुआ है।




4. विन्ध्यन क्रम की चट्टाने vidhyan karm ki chattane

  • यह चट्टाने कुड़प्पा क्रम की
    चट्टानो के बाद बनी है। इनका नामकरण विन्ध्यांचल के नाम पर पड़ा है। यह परतदार
    चट्टाने है जिनका निर्माण जल निक्षेपो द्वारा हुआ है। यहां पाया जाने वाला बलूआ
    पत्थर
  • इस बात का प्रमाण है। 
  • ये चट्टाने
    झारखण्ड के पूर्वी क्षेत्र
    , राजस्थान में चितौड़ क्षेत्र तथा
    उतरप्रदेश में आगरा से होशंगाबाद
    के मध्य फैली हुई है।
  • इसी क्रम की चट्टानो से पन्ना तथा
    गोलकुण्डा के हीरे
    प्राप्त होते है।

5. गोंडवाना क्रम की चट्टानें gondwana karm ki chattane

  • ये चट्टाने कोयले के लिए विशेष
    महत्वपूर्ण है। 
  • भारत का 90 प्रतिशत कोयला इन्ही चट्टानो में पाया जाता है। इनसे मछली
    व रेंगने वाले जीवो के अवशेष प्राप्त होते है। इनका निर्माण नदियों द्वारा एकत्र
    होने वाले पदार्थो से हुआ था।
  •  दामोदर, राजमहल, महानदी, और
    गोदावरी
    व उसकी सहायक नदियों तथा कच्छ
    , काठियावाड़ एवं
    पश्चिमी राजस्थान एवं वर्धा की घाटीयों में इन चट्टानों का सर्वोतम रूप मिलता है।

6. दक्कन ट्रेप daccan trep 

  • इसका निर्माण विदर्भ
    क्षेत्र
    में ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन से लावा के वृहद् उद्गार से हुआ एवं 5
    लाख वर्ग किमी
    का क्षेत्र इससे आच्छादित हो गया। 
  • इस क्षेत्र मे 600 से 1500 मीटर
    एवं कहीं कहीं तो 3000 मीटर की मोटाई तक बैसाल्टिक लावाडोलोमाइट का जमाव मिलता
    है। 
  • यह प्रदेश दक्कन ट्रेप कहलाता है। इसका अधिकांश भाग महाराष्ट्र, गुजरात
    व मध्य प्रदेश
    में फैला है। इसके अलावा इसके कुछ टुकड़ो के रूप में झारखण्ड
    , छतीसगढ
    व तमिलनाडू
    मे फैला है।

प्रायद्वीपीय पठार का महत्व praydwipiya pathar ka mahatav

  • यहां अनेक प्राकृतिक गड्ढो के कारण तालाबो की अधिकता
    पाई जाती है
    , जो यहां सिंचाई व्यवस्था का आधार है।
  •  लावा के अपरदन से यहां काली उपजाउ काली मिट्टी
    निर्मित हुई है जो कपास
    , सोयाबीन एवं चने के लिए सर्वाधिक
    उपयुक्त है।
  •  यहां अधिक वर्षा वाले समतल स्थानो पर काली लेटेराइट
    मिट्टी
    का निर्माण हुआ है जो मसाले
    , चाय व काफी के
    लिए महत्वपूर्ण है।
  •  प्रायद्वीपीय पठार भारत के अधिकांश खनिजो की आपुर्ति
    करता है। यहां की भूगर्भिक संरचना सोना
    , लोहा, यूरेनियम, थोरियम, कोयला, मैगनीज
    आदि से सम्पन्न है।
  • पठारी भाग के तटीय क्षेत्र में खाड़ीयांलैगून झीले
    मिलती है जहां बंदरगाहो व पोताश्रय का निर्माण संभव हो सका है।
  •  पश्चिमी घाट के अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रो में
    सदाबहार वन पाए जाते है जिनमें सागवान
    , देवदार, महोगनी, चन्दन
    व बांस के वृक्ष
    बहुतायात 
    में पाये जाते है।

उतर की विशाल पर्वत माला uttar ki vishal parvat mala 

  • हिमालय के
    निर्माण
    के सम्बंध में कोबर का भूसन्नति सिद्धांत व एवं हैरीहेस का प्लेट
    विवर्तनिकी
    सिद्धांत सर्वाधिक मान्य है।  कोबर
    ने भू सन्नतियों
    को पर्वतो का पालना कहा है। भू सन्नतियां लंबे
    , संकरे
    व छिछले जलीय भाग
    है। 
  • उनके अनुसार आज से 7 करोड़ साल पहले हिमालय के स्थान पर टेथिस
    सागर
    नामक भू सन्नति थी जो अगांरालैण्ड को गोंडवानालैंड से अलग करती थी। इन
  • दोनो के अवसाद टेथिस सागर में जमा होते
    रहे व इन अवसादो का अवतलन होता रहा जिसके परिणामस्वरूप दोनो सलग्न अग्रभूमियों में
    दबाव जनित भू संचलन से कुनलुन श्रेणी व हिमालय-कराकोरम श्रेणीयों का निर्माण हुआ।

टेथिस भू सन्नति का जो भाग वलन से अप्रभावित था तिब्बत का पठार कहलाया।

  • हैरि हेस के द्वारा प्रतिपादित प्लेट
    विवर्तनिकी सिद्धांत
    हिमालय की उत्पति की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या करता है। इसके
    अनुसार 7 करोड़ वर्ष पहले उतर में स्थित यूरेशियन प्लेट की ओर भारतीय प्लेट उतर
    पूर्व दिशा में गतिशील हुआ। 
  • दो से तीन करोड़ वर्ष पहले ये भू भाग अत्यधिक निकट आ गए, जिनसे
    टेथिस सागर के अवसादो में वलन पड़ने लगा। लगभग एक करोड़ साल पहले हिमालय की सभी
    श्रंखलाएं आकार ले चुकी थी।
  •  सेनेजोईक महाकल्प के इयोसीन व ओेलिगोसीन कल्प में
    वृहद् हिमालय का निर्माण हुआ तथा मायोसेसीन कल्प में लघु अथवा मध्य हिमालय का निर्माण
    हुआ। शिवालिक हिमालय का निर्माण वृहद् एवं लघु हिमालय श्रेणीयो के द्वारा लाए गए
    अवसादो के वलन से प्लायोसीन कल्प में हुआ।



हिमालय का महत्व himalaya ka mahatva

  •  हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप की प्राकृतिक व राजनीतिक
    सीमा बनाता है।
  •  यहां चाय के बागान व फलो के लिए ढलुआ जमीन पाई
    जाती है।
  •  यहां पर हिमनद पुरित मीठे जलयुक्त व सतत वाहिनी
    नदियां पाई जाती है।
  •  यहां पर जलविद्युत परियोजनाओं जैसे भाखड़ा-नांगल, पार्वती
    तथा पोंग (हिमाचल)
    , दुलहस्ती तथा किशनगंगा (जम्मु कश्मीर) व टिहरी जलविद्युत परियोजना
    (उतराखण्ड) में स्थित है।
  •  यहां से विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटीयां प्राप्त
    होती है।
  •  हिमालय क्षेत्र को जैव विविधता का विशाल भण्डार भी
    कहा जाता है।

उतर भारत का विशाल मैदानी भाग ! uttar bharat ka vishal maidani bhag

यह
नवीनतम भू खण्ड है
, जो हिमालय की उत्पति के बाद बना है। इसका निर्माण प्लीस्टोसीन एवं
होलोसीन कल्प में हुआ है। हिमालय व दक्षिणी भाग की नदियों द्वारा लाए गए अवसादो से
यह मैदान बना है। पुरानी जलोढ मिट्टी के मैदान बांगर व नई जलोढ मिट्टी के मैदान
खादर कहलाते है।

मैदानी भाग का महत्व maidani bhag ka mahatava

  •  मैदानी भाग भूमिगत जल का विशाल भण्डार है।
  •  मैदानी भाग हमारी वृहद् जनसंख्या के जीवन का आधार
    है।
  •  नदियों की अधिकता के कारण यहां नहरो द्वारा सिंचाई
    संभव हो पाती है।
  •  अवसादो के कारण से पेट्रोलियम पदार्थो के संभावित
    संचित भण्डार है।
  •  भूमि के समतल होने के कारण यहां पर सड़क व रेल
    परिवहन आसानी से किया जा सकता है।



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