Cgpsc Mains syllabus ! cgpsc mains history notes
Cgpsc
mains paper 3 भाग 3
प्रागैतिहासिक काल ! Pre-historic age
परिचय (1272 शब्द)
छत्तीसगढ़ के इतिहास को भौगौलिक एवं राजनैतिक रूप से
सीमावर्ती राज्यों से प्रभावित एवं सम्बंधित माना जाता रहा है। छत्तीसगढ़ का
इतिहास जो विभिन्न स्त्रोतों से पुष्ट हो सका है मौर्य काल से प्राचीन नहीं है किन्तु
किंवदंतियों एवं महाकाव्यों यथा रामायण महाभारत से प्राप्त तथ्यों को मान्य
करें, तो यह उतना ही प्राचीन है, जितनी
राम कथा अर्थात छत्तीसगढ़ कम से कम त्रेता युग से ही भारतवर्ष की राजनीतिक राजनीतिक
एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से किसी न किसी रूप से सम्बद्ध रहा है पुरातात्विक
साक्ष्य बताते है कि छत्तीसगढ़ प्रागैतिहासिक मानव की क्रीड़ा स्थली रहा है , इस
खण्ड में मानव विकास के काल से बीसवीं सदी तक के ज्ञात घटनाओं का विवरण उपलब्ध
साहित्य के आधार पर कालक्रमानुसार रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।
छत्तीसगढ़ का प्रागैतिहासिक काल cgpsc mains history notes credi |
छत्तीसगढ़ का प्रागैतिहासिक काल
पं0 लोचन प्रसाद प्रसाद पांडेय के अनुसार- वर्तमान छत्तीसगढ़
अर्थात दक्षिण कोसल मानव जाति की सभयता का जन्म स्थान कहां है।
अमरनाथ दत्त ने 1910 में अनेक गुफा चित्रों की खोज की थी।
यह क्षेत्र सिंघनपर के समीप चुंबरढाल, पहाडि़यों के शैलाश्रयों
में स्थित है।
चित्रों में लालरंग से पशुओं ,सरीसृपों
तथा टोटेमवादी चिन्हों का विभिन्न रूपांकन तथा रेखाचित्र अंकित हैं। खड़ी तथा आड़ी
रेखाएं खींचकर मानव आकृतियां बनाई गई।
पर्सीब्राउन के अनुसार–चित्र
अत्यंत प्राचीन काल के हैं और उनमें कुछ चित्र लिपियां अंकित हैं। यहां प्राप्त कतिपय
अपखंडित अकीक शल्कों को हैडन ने आंरभिक पाषाण युग के पुरापाषाण युगीन औजार कहा है।
आकार प्रकार की दृष्टि से वे उत्तर केसियन समुह के हो सकते हैं।
प्रागैतिहासिक काल के प्रमुख बातें
सभ्यता के आरम्भिक
काल में मानव की आवश्यकताएं न्यूनतम थीं जो उसे प्रकृति से प्राप्त हो जाती थीं, मनुष्य
पशुओं की भांति जंगलों, पर्वतों और नदी के तटों पर अपना जीवन व्यतीत करता था, नदियों
की घाटियों प्राकृतिक रूप से मानव का सर्वोत्तम आश्रय स्थल थीं, इस
काल में मानव कंद मूल खोदने और पशुओं के शिकार के लिये पत्थरों को नुकीले बनाकरबनाकर
औजार के रूप में प्रयोग करने लगा,
पाषाण के प्रयोग के कारण यह युग पाषाण युग के नाम से
ज्ञात है,
युग विभाजन-
विकास की अवस्था के आधार पर इस युग को चार भागों में
विभाजित किया गया है
- पूर्व पाषाण युग
- मध्य पाषाण युग
- उत्तर पाषाण युग तथा
- नव पाषाण युग
इन पुरा पाषाण युगीन औजारों के अतिरिक्त एंडरसन द्वारा खोज
गया हेमेटाइटपेसल मूलस हमें मोहन जोदड़ो से प्राप्त बेलनाकार हेमेहाइट की याद दिलाती
है।पूर्व पाषाण युग के औजार महानदी घाटी तथा रायगढ़ जिले के सिंघनपुर से प्राप्त
हुए हैं
स्थल एवंं साक्ष्य
सिंघनपुर के चित्र शैली की दृष्टि से पूर्वी स्पेन के कतिपय
गुफाचित्रों से विलक्षण रूप से मेल खाते हैं। उनमें आस्ट्रलियाई चित्रों से भी सादृश्य
दिखाई पड़ता है।
मध्य युग के लम्बे फलक, अर्द्ध
चन्द्राकर लघु पाषाण के औजार रायगढ़ जिले के कबरा पहाड़ से चित्रित शैलाश्रय के
निकट से प्राप्त हुए हैं,
उत्तर पाषाण युग के लघुकृत पाषाण औजार महानदी घाटी, बिलासपुर
जिले के धनपुर तथा रायगढ जिले के सिंघनपुर
के चित्रित शैलगृहों के निकट से प्राप्त हुए हैं,
छत्तीसगढ़ से लगे हुए ओडिशा के कालाहांडी , बालांगीर, एवं
सम्बलपुर जिले की तेल नदी एवं उसकी सहायक नदियों के तटवर्ती क्षेत्र के लगभग 26
स्थानों से इस काल के औजार प्राप्त हुए
हैं,
नव पाषाण युग आता है,इस
काल में मानव सभ्यता की दृष्टि से विकास कर चुका था तथा उसने कृषि कर्म, पशुपालन, गृह
निर्माण तथा बर्तनों का निर्माण,
कपास अथवा ऊन कातना आदि कार्य सीख लिया था,
इस
युग के औजार दुर्ग जिले के अर्जुनी , राजनांदगांव जिले
के चितवा डोंगरी तथा रायगढ़ जिले के टेरम नामक स्थानों से प्राप्त हुए हैं,
धमतरी
बालोद मार्ग पर लोहे के उपकरण आदि प्राप्त हुए हैं, ये
गुफाओं में चित्रकारी करने की कला जानते थे,
पूर्व पाषाणकाल एवं उत्तर पाषाण काल के अवशेष छत्तीसगढ की
सीमा के आसपास के क्षेत्रों में मिले हैं। नर्मदाघाटी में इसकी उपलब्धि हुई है। बैनगंगाघाटी
में भी अवशेष मिले है।
चांदा जिले के कुछ गांव इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। रायगढ़
के समीप सिंघनपुर क्षेत्र में भी पांच कुल्हाडि़यां मिली हैं।
पशुपालन एवं कृषि ज्ञान होने पर सहयोगी के साथ स्थान पर
मानव को रहना पड़ा।यही मानव के समाज संगठन और सामाजिक जीवन का श्रीगणेश कहाजा सकता
है। पूर्वापेक्षा नई आकृति के औजार प्रयुक्त होने लगे तथा उत्तर पाषाण कालीन संस्कृति
विकसित हुई।
राजनांदगावं में अर्जुनी के पास बोन टीला से एक छेद किया हुआ पत्थर का कराघातक
हथोड़ा प्राप्त हुआ है जो उत्तर पाषाण युग का विशेष हथ्यिार माना जाता है। ये हथियार
ईसा पूर्व के कुछ शताब्दियों के माने जा सकते हैं। अनुमानत: ईसा से कम से कम पांच हजार
वर्ष से भी पहले के हाे सकते हैं वे भी जो मध्यप्रदेश के उत्तरी सीमांत स्थानों एवं
नर्मदा घाटी में मिले है।
वृहद पाषण कालीन शव स्थान दुर्ग जिले में मिले है। पुरातत्व
विभाग एवं इतिहास विभाग रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा प्रोपेसर के आर0काम्बले सर्वेक्षण
दल को तीर फलक प्राप्त हुआ था जिसे संग्रहालय महंत घासीदास संग्रहालय रायपुर को संग्रहालयार्थ
प्रदत्त किया गया था।
पाषाण युग के पश्चात ताम्र और लौह युग आता है दक्षिण
कोसल क्षेत्र में इस काल की सामग्री का अभाव है किन्तु निकटवर्ती बालाघाट जिले के
गुंगेरिया नाम क स्थान से तांबे के औजार का एक बड़ा संग्रह प्राप्त हुआ है, लौह
युग में शव को गाड़ने के लिये बड़े-बड़े शिलाखण्डों का प्रयोग किया जाता था इसे महापाषाण
समारकों के नाम से सम्बोधित किया जाता है, इन
समाधियों को महापाषाण पट्टतुम्भ डॉलमेन भी कहा जाता है
दुर्ग जिले के करहीभदर, चरिचारी
और सोरर में पाषाण घेरों के अवशेष मिले हैं, इसी
जिले के करकाभाटा से पाषाण घेरे के साथ लोहे के औजार और मृद भाण्ड प्राप्त हुए हैं,
धनोरा
नामक ग्राम से लगभग 500 महापाषाण स्मारक प्राप्त हुए हैं, जिसका
व्यापक सर्वेक्षण प्रोफेसर जे0 आर0कांबले एवं डा0रमेन्द्रराथ मिश्र ने सर्वप्रथम
किया है, निकटवर्ती कालाहाण्डी जिले की नवापारा तहसील में स्थित सोनाभीर
नामक ग्राम में पाषाण का घेरा मिला है,
प्रागैतिहासिक काल में मुनष्य पर्वत कन्दराओं में निवास
करता था, तब उसने इन शैलाश्रयों में अनेक चित्र बनाये थे, जो
इसके अलंकरणप्रयि एवं कलाप्रिय होने का प्रमाण है, रायगढ़
जिले के सिंघनपुर तथा कबरा पहाड़ी में अंकित शैल चित्र इसके उदाहरण हैं, कबरा
पहाड़ में लाल रंग से छिपकली,
घडि़याल,
सांभर अन्य पशुओं तथा पंक्तिबद्ध मानव समूह का चित्रण किया
गया है,
सिंघनपुर में मानव आकृतियां सीधी, दण्ड
के आकार की तथा सीढी के आकार में अंकित की गई है हाल के कुल वर्षों में राजनांदगावं
जिले में चितवा डोंगरी, रायगढ़ जिले में बसनाझर ओंगना, करमागढ़
तथा लेखाभाड़ा में शैलचित्रों की एक श्रृंखला प्राप्त हुई है,
चितवा
डोंगरी के शैलचित्रों को सर्वप्रथम श्री भगवान सिंह बघेल एंव डॉ रमेन्द्रनाथ मिश्र
ने उजागर किया, छत्तीसगढ़ के महत्वूपर्ण शैल गृहों का विस्तृत विवरण स्थल
परिचय नामक अध्याय में दिया गया है।
ताम्र और लौह युग
पाषाण युग के पश्चात ताम्र और लौह
युग आता है दक्षिण कोसल क्षेत्र में इस काल की सामग्री का अभाव है किन्तु
निकटवर्ती बालाघाट जिले के गुंगेरिया नाम क स्थान से तांबे के औजार का एक बड़ा
संग्रह प्राप्त हुआ है,
लौह युग में शव को गाड़ने के लिये बड़े-बड़े शिलाखण्डों
का प्रयोग किया जाता था इसे महापाषाण समारकों के नाम से सम्बोधित किया जाता है, इन
समाधियों को महापाषाण पट्टतुम्भ डॉलमेन भी कहा जाता है
दुर्ग जिले के करहीभदर, चरिचारी
और सोरर में पाषाण घेरों के अवशेष मिले हैं, इसी
जिले के करकाभाटा से पाषाण घेरे के साथ लोहे के औजार और मृद भाण्ड प्राप्त हुए हैं,
ताम्रस्त्र के सबंध में बालाघाट के गुंगेरिय नामक स्थान
से 424 हथियारों का एक संचय प्राप्त हुआ था। यह ग्राम दक्षिण में ताम्रास्त्र संस्कृति
के सीमांत स्थानों में प्रमुख है।
हथियारों में तांबे की विविध आकृति वाली सपाट कुल्हाडि़यां, सब्बल
तथा चांदी के अक्षय वस्तुएं मिली थी, । जबलपुर में एक कुल्हाड़ी
मिलने का उल्लेख मिलती है।
(1272 शब्द)
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