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mains syllabus history paper 3 part 3

रतनपुर का कल्‍चुरी वंश ! ratanpur’s kalachuri dynesty

परिचय एवं पृष्‍ठभूमि

दक्षिण कोसल के इतिहास में कलचूरी राजवंश का महत्‍वूर्ण
स्‍थान है। इस वंश के राजाओं ने अपने को चंद्रवंशी माना है। तथा सहस्‍त्रार्जुन की
संतान बतलाया है। इनका नाम कटच्‍चुरि
, कलत्‍सुरि,
कालचूर्य
तथा करचुलि
उल्लिखित है।  उनकी अनेक शाखाए
थी जिनमें माहिष्‍मती
,त्रिपुरी, सरयूपार और रतनपुर के कलचुरि
प्रमुख
हैं। 6वीं से 18वीं शताब्‍दी तक कलचूरि राजओं ने भारत के अनेक स्‍थानों पर
शासन किया।

डॉ कीलहार्न के अनुसार कलचुरियों की प्राचीन राजधानी
त्रितसौर्य थी जो अज्ञात था। कलचुरियों ने 248 ई0 में अपना नया संवत चलाया जो
प्राय एक हजार वर्ष तक चलता रहा।

डॉ0 रमेन्‍द्रनाथ मिश्र एवं डॉ शांता शुक्‍ल ने अनुमान
लगाया है कि इनकी प्राचीन राजधानी उच्‍चहरा वर्तमान बघेलखण्‍ड रही होगी।

प्राचीन राजधानी उच्‍चहरा से उठकर कलचुरियों ने जबलपुर
के निकट 6 मील पर त्रिपुरी नगर में अपना केन्‍द्र बनाया। जहां त्रिपुरेश्‍वर
महादेव
अद्यावधि विद्यमान हैं।

9वीं श्‍ताब्‍दी के अंत में त्रिपुरी के कलचुरियों ने
दक्षिण कोसल में अपनी शाखा स्‍थापित करने का प्रयत्‍न किया।

कोकल्‍ल प्रथम के पुत्र शंकरगण , द्वितीय अर्थात
मुग्‍धतुंग
ने कोसल नरेश से पालि प्रदेश बिलासपुर जिलांतर्गत पाली नामक स्‍थान के
आसपास का क्षेत्र जीत लिया था। इस समय यहां बाणवंशीय विक्रमादित्‍य प्रथम राज कर
रहा था। इससे अथवा इसके उत्‍तराधिकारी से शंकरगण ने यह प्रदेश जीता होगा।

शंकरगण का राजधानी तुम्‍माण थी। वे स्‍वर्णपुर उड़ीसा के
सोमवंशी राजा द्वारा पराजित कर दिए गए।

युवराज देव प्रथम और उसके पुत्र लक्ष्‍मण राज द्वितीय ने
दक्षिण कोसल पर चढ़ाई कर वहां के राजा को पराजित किया था।

बाद में कोकल्‍ल देव ,द्वितीय के शासन
काल में कलिंगराज नामक(1000ई)  कलचुरि
राजपुत्र ने दक्षिण कोसल को जीतकर तुम्‍मन नगर में राजधानी स्‍थापित की।

कलिंगराज का पुत्र कमलराज 1020 ई के समय तुम्‍मान की
राजगद्दी पर बैठा। उसने अपने समकालीन त्रिपुरी के कलचुरी शासक गांगेय देव के स्‍वामित्‍व
केा स्‍वीकार किया। उसके काल में त्रिपुरी नरेश गांगेय देव ने उड़ीसा पर चढाई की थी।
उसने अपने वंशज कमलराज को सेना सहित युद्ध में बुलाया था। कलचुरि नरेश पृथ्‍वी देव
प्रथम
के अमोदा लेख से मालूम होता है कि कमलराज ने उत्‍कल के राजा को हटाकर उसकी
लक्ष्‍मी गांगेय देव को लाकर दे दी थी। उत्‍कल से लौटते समय कमलराज के साथ साहिल्‍ल
नामक एक वीर पुरूष कोसल आयाथा। उसने और उसके वंशज ने अपने स्‍वामी के लिए
छत्तीसगढ़ के अनेक राज्‍य जीत लिए।


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रतनपुर के कल्‍चुरी शासक कालक्रम

 

 रत्‍नराज प्रथम

तुम्‍माण वंश में एक राजकुमार रत्‍नदेव
हुआ जो‍ कि 1045 में अपने पिता कमलराज के बाद सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने कोमोमण्‍डल
के आधिपत्‍य बज्‍जुक या बजुवर्मा की बेटी नोनल्‍ला से विवाह
किया था। इस विवाह से
छत्तीसगढ़ पर उसका अधिकार दृढ़ हो गया था।

रत्‍नराज ने मणिपुर नामक प्राचीन ग्राम को नगर के रूप
में परिवर्तित कर उसे रत्‍नपुर नान दिया और अपनी राजधानी तुम्‍मान से हटाकर रत्‍नपुर
में स्‍थापित किया। दक्षिण कोसल के कलचुरियवंशीय रत्‍नदेव ने रत्‍नपुर में अनेक
देवालय और मंदिर तथा फलों से भरे उद्यान सुंदर आम्रवन
, इमारतों का
निर्माण कराया जो कुबेर के नगर के समान चारों दिशा में प्रसिद्ध है।

पृथ्‍वीदेव प्रथम

रत्‍नदेव का पुत्र पृथ्‍वीदेव प्रथम
1065 ई0
लगभग रत्‍नपुर के राजासिंहासन आसीन हुआ। उसको महामण्‍डलेश्‍वर तथा
समधिगताशेष पंचमहाशब्‍द
कहा गयाहै। जिससे स्‍पष्‍ट होता है कि वह त्रिुपरी की मुख्‍या
शाखा के सामंत के रूप में राज्‍य करताथा।

उसने साम्राज्‍य का विस्‍तार करके संकलकोसलाधिपति की
पदवी धारण कर ली और कोसल के 21000 ग्रामों का स्‍वामी बन गया। पृथ्‍वीदेव की रानी
राजल्‍ला थी। पृथ्‍वीदेव प्रथम ने तुम्‍मान में पृथ्‍वीदेवेश्‍वर नामक शिवमंदिर का
और रत्‍नपुर में विशाल सरोवर का निर्माण करवाया। इसने पृ‍थ्‍वीदेव प्रथम ने 1065
से 1090 ई
तक शासन किया।

जाजल्‍ल देव प्रथम

पृथ्‍वीदेव प्रथम का पुत्र एवं उत्‍तराधिकारी
जाजल्‍लदेव प्रथम 1090 ई0 के लगभग सिंहासनारूढ़ हुआ। कोसल
, आंध्र खिमड़ी
लजिका भाणार (भंडार) तलहारि मल्‍लार दंडकपुर नंदवली और कुक्‍कुट
के राजा जाजल्‍लदेव
को वार्षिक या भेंट देते रहते थे।

इस राजा के द्वारा जाजल्‍लपुर नामक नगर बसाने की
सूचना की मिलती है। उसने तपस्वियों के लिए मठ
, उद्यान,आम्रवान और मनोहर
सरोरवर का निर्माण करायाथा। 

जाजल्‍लदेव ने उड़ीसा पर भी आक्रमण कर सुवर्णुपर के
राजाभुजबल
को पराजित कियाथा।

जाजल्‍लदेव प्रथम ने‍ त्रिपुरी की प्रमुखता को ठुकरा
दिया और अपने स्‍वातंत्रय की घोषणा कर दी तथा अपने नाम के स्‍वर्ण एवं ताम्र सिक्‍के
जारी कर दिए।

जाजल्‍लदेव ने अपने नाम पर जाजल्‍लपुर नामक नगर बसाया था
जो वर्तमान में जांजगीर के नाम से जाना जाता है। इसके पाली स्थित देवालय का
जीर्णोद्वार करवाया था। इस मंदिर की दीवाली पर श्री मज्‍जजल्‍ल देवस्‍यकीर्ति उत्‍कीर्ण
है।

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रत्‍नदेव द्वितीय 

प्रथम के बाद उसका पुत्र
रत्‍नदेव द्वितीय ई सन 1120 के लगभग राजा हुआ। उसके राज्‍यकाल के चार अभिलेख
अकलतरा
, पारागांव शिवरीनारायण और सरखों से प्राप्‍त हुए है।

रत्‍नदेव द्वितीय ने  त्रिपुरी नरेश गयाकर्ण को युद्ध में पराजित कर अपेन
पिता की तरह त्रिपुरी की प्रभुसत्‍ता को मानने से इंकार कर दिया।

रत्‍नदेव द्वितीय राज्‍य काल
की दूसरी महत्‍वपूर्ण  घटना गंगवंशी राजा
अनंतवर्मा चोड़गंग पर विजय की है। इस विजय से रत्‍नदेव की हिम्‍मत काफी बढ़ गई और
उसने गौड़ देश पर आक्रमण करके राजा को हरा दिया। 

उसने भंज राजाओं की राजधानी खिज्जिंग
पर आक्रमण कर वहां के राजा हरवोहु को मृत्‍युलोक पहुंचा दिया।

रत्‍नदेव द्वितीय के राज्‍यकाल में विद्या और कला को
उदारहतापूर्वक राज्‍याश्रम मिला।

पृथ्‍वीदेव द्वितीय

रत्‍नदेव द्वितीय के तीन पुत्र थे पृथ्‍वीदेव
द्वितीय
, जयसिंह, अकालदेव। ज्‍येष्ठ पुत्र पृथ्‍वीदेव द्वितीय

1135 ई के समय
सिंहासन पर बैठा।

रत्‍नपुर शाखा में सर्वाधिक अभिलेख पृथ्‍वीदेव द्वितीय
1135
से
1165 ई के मिले है
जिनकी संख्‍या अब तक 13 हैं।

कलचुरिकालीन दक्षिणकोसल के राजनीतिक इतिहास में इस शासक
का महत्‍वपूण्र स्‍थान है। इसने सरहग्रढ़
,मचका सिहावा,
कांदा
डोंगर
, काकरय,
पर विजय प्राप्‍त की थी। इसके अतिरिक्‍त चक्रकोट वर्तमान
चित्रकूट बस्‍तर
जिला को जीतकर गंग राजाओं की हरा दियाथा।

पृथ्‍वीदेव द्वितीय ने अपनु दो पूर्व राजाओं के समान स्‍वर्ण
एवं रजत सिक्‍कों
का प्रचलन किया था। इनके रजत सिक्‍के बहुत ही छोटे आकार के थे।

जनहितकारी कार्यांतर्गत मंदिर निर्माण ,तालाब निर्माण
एवं बाग निर्माण का कार्य भी इस शासक क शासन काल में प्रच्‍छन्‍न रूप से हुए।

जाजल्‍लदेव द्वितीय

पृ‍थ्‍वीदेव द्वितीय के तीन पुत्र
थे-जगद्देव द्वितीय
, जाजल्‍लदेव द्वितीय । उसका उत्‍तराधिकारी जाजल्‍लदेव द्वितीय हुआ। जाजल्‍लदेव
द्वितीय
कनिष्‍ठ होते भी राजगद्दी पर बैठा यह विचारणीय है। रत्‍नदेव
तृतीय के खरोद शिलालेख से पता चला है कि जगद्देव पूर्वी देशों में युद्धरत था
जिससे जाजल्‍लदेव द्वितीय
अधिक प्रतापी नहीं थे अत: उसे पूर्वी गंगों से लड़ने का
महत्‍वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा गया।

जाजल्‍लदेव के राज्‍यकाल 1165-1168 ई0 के तीन अभिलेख
अमोदा
, मल्‍लार तथा शिवरीनारायण से प्राप्‍त हुआ है। उसका राज्‍य
अल्‍पकालीन और समस्‍याओं से पूर्ण था।

उसके शासनकाल में त्रिपुरी के कल्‍चुरि‍ राजा जयंसिंह ने
आक्रमण क र
दिया। इस युद्ध में रतनपुर की छोटी शाखा के उल्‍हाण देव ने जी जान से
लड़कर जयसिंह देव केा पराजित किया। जाजल्‍लदेव द्वितीय के राज्‍य काल में अनेक
देवालय बनवाए गए तथा तालाब खुदवाए गए।

जगददेव 

जाजल्‍लदेव द्वितीय के अंतिम दिनों
में कुछ संकट उपस्थित हुआ था ऐसा प्रतित होता है खरोद शिलालेख के अनुसार जब जाजल्‍लदेव
द्वितीय
स्‍वर्गवासी हुआ तो चारों ओर अंधेरा छा गया और अव्‍यवस्‍था
फैल गई। इस परिसिथति को संभालने के लिए जाजल्‍लदेव द्वितीय
का बड़ा भाई 
जगददेव  पूर्व
देश से शीघ्र आया और उसने शांति और सुराज्‍य की स्‍थापना की।
जगददेव ने लगभग दस
वर्षों तक 1168से 1178 ई तक राज किया।

रत्‍नदेव (तृतीय) 

जगददेव की रानी सोमल्‍ला देवी का बेटा
रत्‍नदेव तृतीय
के नाम से रत्‍नपुर की गद्दी पर बैठा। उसके राज्‍य काल में भी कुछ
कारणों के अव्‍यवस्‍था बनी रही। उसने शांतिपूर्ण काल में गंगाधर नामक विद्वार
ब्राम्हण को अपना मंत्री बनाया
, जिसने राज्‍य में वैभव एवं शांति की पुन: स्‍थापना की।

गंगाधर ने खरौद स्थित लखनेश्‍वर मंदिर सभामझण्‍डप की जीर्णोद्धार
कराया और उसने देवालय बनवाए। उनमें से रत्‍नपुर के समीप एक टेकरी पर एक वीरा देवी
का मंदिर
बनवाया जो आज भी अच्‍छी स्थिति में हैं।

रत्‍नदेव (तृतीय) के बाद कौन शासक बना यह कहना कठिन है।

के0एम0 मुंशी के अनुसार रत्‍नदेव तृतीय के बाद उसका पुत्र पृथ्‍वीदेव तृतीय और
प्रतापमल्‍ल शासक बना।

 

जबकि डॉ 0वा0मिराशी के अनुसार रत्‍नदेव तृतीय के बाद
प्रतापमल्‍ल 1198 में लगभग
गद्दी पर बैठा।

प्रतापमल्‍ल 

प्रतापमल्‍ल के बिलाईगढ़ ताम्रपत्र से ज्ञात
होता है कि रत्‍नदेव तृतीय का पुत्र प्रतापमल्‍ल उसका उत्‍तराधिकारी  हुआ तथा पेड्राबध लेख से विदित है कि प्रतापमल्‍ल
ने युवावस्‍था में ही राज्‍य भार ग्रहण किया। संभवत: रत्‍नदेव तृतीय  की मृत्‍यु हो गई होगी या वह काफी वृद्ध हो गया
होगा।

प्रतामल्‍ल की राज्‍यावधि 1200 से 1225 ई0 मानी जा सकती
है। प्रतामल्‍ल के बाद कलचुरि इतिहास से संबंधित 300 वर्षो का काल अंधकारमय है। 

बाहरेन्‍द्र 

15वी शताब्‍दी के अंत में बाहरेन्‍द्र नामक राजा के राज्‍य करने की सूचना मिलती
है। इसी इतिहास के संबंध में हेमाद्रि के व्रतखंड के किसी जाजल्‍ल नामक नरेश का
नामोल्‍लेख आया है।

प्रतामल्‍ल ने तांबे के चक्राकार एवं षट्कोणकार सिक्‍के
भी चलाएं।

बाहरेन्‍द्र के लेख रतनपुर और कोसगई से प्राप्‍त हुए
हैं। कोसगई में बताया गया है कि राजा बाहरेन्‍द्र ने पठानों को खदेड़कर शोण नदी तक
भाग दिया था
। उसने अपनी राजधानी रतनपुर से हटकर कोसंगा के किले में  स्‍थापित की थी। 

बाहरेन्‍द्र के मंत्री का नाम
माधव था। बाहरेन्‍द्र ने 1740 ई तक रतनपुर में राज करता रहा।

रतनपुर के कलचुरि शासक सिंघण या सिंहण का बेटा डंधीर था,
उसका
बेटा रामचंद्र था। रामचंद्र के बेटे रत्‍नदेव का रानी गुंडायी से बाहरेन्‍द्र का
जन्‍म हुआ।




रतनपुर के कलचुरी वंश का अंत 

स्‍थानीय किवदंतियों के अनुसार बाहरसाय के 12 उत्‍तराधिकारी
थे। इस भूभाग रत्‍नपुर को नागपुर के भोसलों के सरदार भास्‍कर पंत द्वारा सन्
1740-41 में जीत लिया गया और इस प्रकार रत्‍नपुर के कल्‍चुरि वंश की समाप्ति हुई।

कल्‍चुरी काल में सारे छत्तीसगढ़ में एक समान राजनीतिक
पद्धति लागू हुई। इसके पहले कभी-भी ऐसी एकरूपता प्राप्‍त नहीं हो सकी है। दूरस्‍थ
पड़ोसी देश कल्‍चुरियों की अधीनता को स्‍वीकार करते थे।

रतनपुर का अंतिम कल्‍चुरि राजा रघुनाथ सिंह- वृद्ध हो
चुका था। पुत्र शोक से वह व्‍याकुल था। अत: रानियों ने किले से सफेद ध्‍वजा दिखाकर
मराठा सेना से युद्ध न करना ही उचित समझा ओर इस प्राकर बिना युद्ध प्रतिरोध के
रतनपुर राजय
, नागपुर के भोसला शासक अर्थात मराठों के अधिकार में आ
गया। शताब्दियों से चली आ रही कलचुरि कालीन प्रशासनिक व्‍यवस्‍था एकाएक बिखर गई।
छत्तीसगढ़ के समस्‍त जमींदार यदि समय पर संगिठित होकर रतनपुर के राजा को सहयोग देते
तो संभवत: मराठे सफल नहीं होते । मराठों ने परिस्‍थितयों का लाभ उठाया अन्‍यथा
उनका इरादा उड़ीसा की ओर कर वसुली के लिऐ जाने हेतु मार्ग के रूप में छत्तीसगढ़ का
प्रारंभिक उपयोग था।

छत्तीसगढ़ विजय से मराठों के हाथ धान का कटोरा चला गया।
वनोपज एंव खनिज का दोहन भी उन्‍होंने किया। बाद के ब्रिटिश राज में शामिल होने से
जहां मैनचेस्‍टर के मिल समृद्ध हुए। छत्तीसगढ़ के धन से जो उन्‍होंने मराठों के
माध्‍यम से प्राप्‍त किया
, उनकी आर्थिक उन्‍नति में कालांतर में सहायक रही।


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