शरभपूरीय वंश Sharabhpuriya vansh
छत्तीसगढ़ के प्रमुख स्थानीय राजवंश
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paper 3 part 3
शरभपुरीय वंश Sharabhpuriya छत्तीसगढ़ का इतिहास
परिचय एवं उद्भव
लगभग पांचवी शताब्दी ईस्वी के अंत में दक्षिण कोसल में
एक नए राजवंश की स्थापना हुई ।
Sharabhpuriya की राजधानी शरभपुर थी। जिसका नामकरण इस वंश के
संस्थापक शरभ के नाम पर हुआ था।
Sharabhpuriya वंश के अधिंकांश ताम्रकार शरभपुर से प्रचलित
किए गए थे इसलिए इस राजवंश को शरभपुरीय वंश के नाम से संबोधित किया जाता हैं।
शरभपुरीय वंश का नाम अमरार्य कुल था। व्याघ्रराज के मल्लार ताम्रपत्र में अमरजकुल तथा अन्य
अभिलेखों में अमरार्य कुल का उल्लेख मिलता है।
शरभपूरीय शासक
भानुगुप्त के एरण स्तंभ लेख में शरभराज का अंतिम रूप से
तय नहीं हो पाई। कुछ विद्वानों का कहना है कि वह सांरगढ़ में ही स्थित हो सकता है।
महाराजा नरेन्द्र के कुरूदपटट तथा पिपरदुला के दानपत्र से यह प्रतीत होता है कि
राजा शरभ ही वह शरभराज है जो गोपराज का नाना था और जिसकी मृत्यु एरण में 510 ई0
में हुई थी।
शरभपुरियों का राजचिन्ह गजलक्ष्मी था जो उनके समस्त
अधिकार पत्रों की मुहर पर पाया गया है।
शरभ का उत्तराधिकारी नरेन्द्र हुआ। इसके तीन ताम्रपत्र
प्राप्त है।
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नरेन्द्र का पुत्र प्रसन्नमात्र था जिसके स्वर्ण तथा
रजत सिक्कें पर गरूड़ की प्रतिमा तथा शंख, चक्र अंकित है।
प्रसन्न्मात्र एक शक्तिशाली राजा था। परवर्ती अभिलेखों में वंशावली इसी नरेश से
प्रांरभ की गई है। अत्याधिक मात्रा मे प्रचलित स्वर्ण मुद्राएं इसकी इसकी वैभव
समृद्धि के घोतक हैं। इसने अपने नाम से प्रसन्नपुर मल्हार नामक नगर की स्थापना
की थी।
बालचंद जैन ने प्रसन्नमात्र के बाद उसके पुत्र कानाम
जयराम मानमात्र दुर्गराज था बताया। जबकि अजय शास्त्री के अनुसार उसके बाद जयराम
तथा मानमात्र दुर्गरराज सिंहासनारूढ़ हुआ।
जयराम का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र सुदेवराज
शरभपुर का राजा हुआ। सुदेव राज के दो अन्य भाई प्रवरराज एवं व्याघ्रराज थे।
प्रवरराज अत्यंत महत्वकांक्षी था। अत: उसने श्रीपुर में अपनी राजधानी स्थापित
की थी। इनकी मृत्यु जल्दी होने के कारण श्रीपुर का क्षेत्र भी सुदेव राज केअधिकार
में आ गया।
दूसरा भाई प्रवरराज प्रसन्नपुर में प्रवरराज के सामन्त
के रूपमें पदस्थ थे। सुदेवराज के पश्चात उसका अनुज प्रवरराज राज्य का उत्तराधिकारी
हुआ। जिसके दो ताम्रतत्रलेख ठाकुरदिया एवं मल्लार से प्राप्त हुए हैं।
शासन का अन्त
अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार सुदेव राज के राज्य का लमें
पाण्डुवंशी इन्द्रबल राज उसका सामंत था।इन्द्रबल ने सुदेवराज की मृत्यु के बाद
शरभपुरीय राजवंश को समाप्त किया और श्रीपुर को अपनी राजधानी बनाई।
सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व–
स्वर्ण सिक्कें के प्रचलन से उनकी श्रेष्ठता एवं
आर्थिक सिथति का पता चलता है। सांस्कृतिक दृष्टि से श्रीपुर क्षेत्र का विकास को
राह था। इस क्षेत्र में सर्वधर्म समभाव की भावना विद्यमान थी। इसका प्रमाण सिरपुर,
आरंग,
मल्लार
पुरावशेषों से होता है।
अत: में प्रवर राज द्वितीय की कमजोरी का फायदा पाण्डुवंशियों
ने उठाया और अपने विस्तार क्षेत्र को विस्तृत करते हुए सिरपुर पर भी नियंत्रण कर
लिया
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